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सोमवार, 26 सितंबर 2016

दीदार | शेख अहमद वारिस | दीदार को तेरे आयेंगे हम

दीदार

दीदार को तेरे आयेंगे हम
दिल अपना नज़र को लाएँगे हम
परवानो की तरह शम्मो के ऊपर
शदा क़ुर्बान जायेंगे हम

(शेख अहमद वारिस)

आशिक़ बीमार | में जो एक आशिक़ बीमार हु, किन् का उनका | शेख अहमद वारिस

आशिक़ बीमार

में जो एक आशिक़ बीमार हु,  किन् का उनका
किष्ता आबरुओं खिमदार हु,  किन् का उनका
जमा आशिक़ में शादा की तरफ करके ख़िताब

बोल उठा यार के में यार हु किनका, उनका

( शेख अहमद वारिस )

कैसी गुज़री | मत पूछ के कैसी शब् हमारी गुज़री | शेख अहमद वारिस

कैसी गुज़री

मत पूछ के कैसी शब् हमारी गुज़री
पत्थर से पटकते रात हमारी गुज़री
बे मैहर तेरे फ़िराक़ में शादा को

सो रात से एक रात भरी गुज़री
(शेख अहमद वारिस)

मेरी मोहब्बत | मोहब्बत मेरी तुमको आती नहीं है | शाह अब्दुल रहीम कुरैशी

मेरी मोहब्बत

तडपता हु फुरकत में दिन रात तेरी
मोहब्बत मेरी तुमको आती नहीं है

भुलाऊ में कैसे तुम्हे शाह कूबा
तेरी याद अब दिल से जाती नहीं है

मोअत्तर हो जिससे दिमाग दो आलम
वो इत्र सबा क्यों सुंघाती नहीं है

रहीम अपने शैदा से क्यों ऐसा रूठे
के आवाज़ तक भी सुनाती नहीं है


(शाह अब्दुल रहीम कुरैशी)


जामा मस्जिद ग़ाज़ीपुर | ख़म थी पहले मस्जिद जामा | देख के जिसको दिल था दीवाना

जामा मस्जिद ग़ाज़ीपुर


ख़म थी पहले मस्जिद जामा
देख के जिसको दिल था दीवाना

कह के लब्बैक सब अमीर व गरीब
उठे उनकी मदद को शिराना

जिस की तंगी हमें सुनाती थी
कौम की बेहसि का अफसाना

माल से, ज़र से, दस्त व बाज़ुओ से
सब ने इम्दाद की दिलेराना

पर हुए मुस्ता’ाद बशीर अलहक
दिल में लेकर ख्याल मरदाना

ऐसी मस्जिद बनी बफज़ल खुदा
जिस से ज़ाहिर है शान दराना

सुना हिजरी में यु क़मर ने कहा
है ये अच्छा बना खुदा ख़ाना

रविवार, 25 सितंबर 2016

फ़िज़ा में एक तान उठी बहार झूमने लगी | ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी | उर्दू ग़ज़ल


फ़िज़ा में एक तान उठी बहार झूमने लगी


फ़िज़ा में एक तान उठी बहार झूमने लगी
सिमट सिमट के कहकशा कदम को चूमने लगी

ये घुंघरुओं का ज़ैर ो बेम ये मौज आबशार की
ये आबरुओं का पैच ो ख़म ये कंसनी बहार की

फ़िज़ा में दूर दूर तक लपक रही है बिजलियाँ
बदन के जोड़ जोड़ से टपक रही है बिजलियाँ

तनाव है ये जिस्म का के बांसुरी की तान है
चढ़ी हुई नदी है या खींची हुई कमान है

कमर की लोच देख कर हवा सनक के रह गयी
के जैसे कोई शाख़ ए गुल लपक लपक के रह गयी

निगाह की ये जुम्बिश ये मस्तियाँ शबाब की
चिराग की लपक है या किरण है आफ़ताब की

जो बाज़ुओ में ख़म हुआ फ़िज़ाएं घनघना उठी
के जो की नर्म बालियाँ हवा में लहलहा उठी

जो शय मिली बहार की तो मोर नाचने लगा
के चाँदनी की थाप पे चकोर नाचने लगा

कभी जो सांस रुक गयी तो काइनात रुक गयी
जहाँ नज़र ठहर गयी वही हयात रुक गयी
दिलो को जगमगा गयी एक आफ़ताब की तरह
गिरि फुवार की तरह चढ़ी शराब की तरह

नसीम सुबह करवटें बदल बदल के रह गयी
कली के बंद जाम में शराब उबल के रह गयी

मगर अभी सुकून कहा अभी कहा बहार है
उरूज रक्स के लिए सहर का इंतज़ार है

(ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी)

इश्क़ बुतों का न करेंगे | मोमिन खान मोमिन



इश्क़ बुतों का न करेंगे

तौबा है के हम इश्क़ बुतों का न करेंगे
वो करते है अब, जो न किया था, न करेंगे.

ठहरी है के ठहराएंगे ज़ंजीर से दिल को
पर बरहमी ज़ुल्फ़ का सौदा न करेंगे.

अंदेशा मिश्रगा है अगर खून ने किया जोश
नश्तर से इलाज ऐ दिल ऐ दिवाना करेंगे.

ग़र आरज़ूओं वसल ने बिमार किया तो
परहेज़ करेंगे पे मदावा करेंगे.

तश्बीया ज़ेबुस देते है लैब हाय बुताँ को
मर जायेंगे पर मिन्नतें` ईसा न करेंगे

फिर जाये न चश्मे सनम आँख के आगे
सेरे चमन नर्गिस ऐ शेहला न करेंगे.

है अहद के फिर जाना फिर कुये  बुताँ मैं
फिर जाये अब आहद से ऐसा न करेंगे.


 तौबा है के हम इश्क़ बुतों का न करेंगे
वो करते है अब, जो न किया था, न करेंगे.

ठहरी है के ठहराएंगे ज़ंजीर से दिल को
पर बरहमी ज़ुल्फ़ का सौदा न करेंगे.

अंदेशा मिश्रगा है अगर खून ने किया जोश
नश्तर से इलाज ऐ दिल ऐ दिवाना करेंगे.

ग़र आरज़ूओं वसल ने बिमार किया तो
परहेज़ करेंगे पे मदावा करेंगे.

तश्बीया ज़ेबुस देते है लैब हाय बुताँ को
मर जायेंगे पर मिन्नतें` ईसा न करेंगे

फिर जाये न चश्मे सनम आँख के आगे
सेरे चमन नर्गिस ऐ शेहला न करेंगे.

है अहद के फिर जाना फिर कुये  बुताँ मैं
फिर जाये अब आहद से ऐसा न करेंगे.


(मोमिन खान मोमिन )

शनिवार, 24 सितंबर 2016

ऐ शरीफ इंसानो जंग टलती रहे तो बेहतर है | साहिर लुधयानवी



ऐ शरीफ इंसानो

खून अपना हो या पराया हो
नस्ल ऐ आदम का खून है आखिर.

जंग मशरिक में हो के मगरिब में हो
अमन औ आलम का खून है आखिर.

बम घरो में गिरे के सरहद पे
रूह ऐ तामीर ज़ख्म खाती है.

खेत अपने जले के औरो के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है.

टैंक आगे भाड़े के पीछे हटे
कोख धरती की बाँज होती है.

फ़तेह का जशन हो या हार का सोग
ज़िन्दगी मय्यतो पे रोती है.

जंग तो खुद ही एक मसला है
जंग क्या मसलों का हल देगी.

आग और ख़ून आज बख्शेगी
भूक और एहतियाज कल देगी.

इसलिये ऐ शरीफ इंसानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है.

आप और हम सभी के आँगन में

शम्मा जलती रहे तो बेहतर है.

(साहिर लुधयानवी)

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