ऐ शरीफ इंसानो
खून अपना हो या पराया
हो
नस्ल ऐ आदम का खून है
आखिर.
जंग मशरिक में हो के
मगरिब में हो
अमन औ आलम का खून है
आखिर.
बम घरो में गिरे के
सरहद पे
रूह ऐ तामीर ज़ख्म खाती
है.
खेत अपने जले के औरो
के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से
तिलमिलाती है.
टैंक आगे भाड़े के
पीछे हटे
कोख धरती की बाँज
होती है.
फ़तेह का जशन हो या
हार का सोग
ज़िन्दगी मय्यतो पे
रोती है.
जंग तो खुद ही एक
मसला है
जंग क्या मसलों का हल
देगी.
आग और ख़ून आज बख्शेगी
भूक और एहतियाज कल
देगी.
इसलिये ऐ शरीफ इंसानो
जंग टलती रहे तो
बेहतर है.
आप और हम सभी के आँगन
में
शम्मा जलती रहे तो
बेहतर है.
(साहिर लुधयानवी)
Nice
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