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रविवार, 25 सितंबर 2016

फ़िज़ा में एक तान उठी बहार झूमने लगी | ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी | उर्दू ग़ज़ल


फ़िज़ा में एक तान उठी बहार झूमने लगी


फ़िज़ा में एक तान उठी बहार झूमने लगी
सिमट सिमट के कहकशा कदम को चूमने लगी

ये घुंघरुओं का ज़ैर ो बेम ये मौज आबशार की
ये आबरुओं का पैच ो ख़म ये कंसनी बहार की

फ़िज़ा में दूर दूर तक लपक रही है बिजलियाँ
बदन के जोड़ जोड़ से टपक रही है बिजलियाँ

तनाव है ये जिस्म का के बांसुरी की तान है
चढ़ी हुई नदी है या खींची हुई कमान है

कमर की लोच देख कर हवा सनक के रह गयी
के जैसे कोई शाख़ ए गुल लपक लपक के रह गयी

निगाह की ये जुम्बिश ये मस्तियाँ शबाब की
चिराग की लपक है या किरण है आफ़ताब की

जो बाज़ुओ में ख़म हुआ फ़िज़ाएं घनघना उठी
के जो की नर्म बालियाँ हवा में लहलहा उठी

जो शय मिली बहार की तो मोर नाचने लगा
के चाँदनी की थाप पे चकोर नाचने लगा

कभी जो सांस रुक गयी तो काइनात रुक गयी
जहाँ नज़र ठहर गयी वही हयात रुक गयी
दिलो को जगमगा गयी एक आफ़ताब की तरह
गिरि फुवार की तरह चढ़ी शराब की तरह

नसीम सुबह करवटें बदल बदल के रह गयी
कली के बंद जाम में शराब उबल के रह गयी

मगर अभी सुकून कहा अभी कहा बहार है
उरूज रक्स के लिए सहर का इंतज़ार है

(ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी)

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