अभी हाल ही में जब ट्रिपल तलाक़ का बिल भारत में पास हुआ तब ट्रिपल तलाक़ के साथ साथ हलाला शब्द भी काफी चर्चा में रहा। जिस तरह से इसे भारतीय मीडिया की मुख्य धारा ने पेश किया उससे ऐसा लगा की ये तो औरतो पे बड़ा अत्याचार है। जो मौलाना मीडिया पैनल में लाये जातें थे उन्होंने भी सही ढंग से इसे पेश नहीं किया या उन्हें पेश करने नहीं दिया गया। ये एक बेहद अफ़सोस की बात है जब किसी कौम का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग ही मसला सही ढंग से समझा न सके तो उन्हें नैतिक रूप से मीडिया में मुख्य चेहरा बनना नहीं चाहिए।
जानते है हलाला के बारे में। अरब संस्कृति में एक चीज़ ये थी के लोग औरतो को न तो निकाह में रखते थे न ही तलाक़ देते थे। उदाहरण : एक बार तलाक़ देते थे उसके बाद औरत इद्दत में चली जाती है जिसकी समय सीमा 4 महीने 10 दिन की होती है। ये समय सीमा समाप्त होने से पहले पहले आदमी औरत को वापस अपने निकाह में ले सकता है अगर किसी बात को लेकर कोई विवाद हो गया है तो उसे दूर करके। अरब में कुछ लोग ऐसा ही करते थे तलाक़ देते थे और इद्दत की समय सीमा समाप्त होने से पहले वापस अपने निकाह में ले लेते थे। लेकिन वे लोग ऐसा इसलिए करते थे के ऐसा करने में उन्हें मज़ा आता था और कुछ औरतो पे ज़ुल्म की नियत से करते थे लेकिन विवाद को दूर नहीं किया जाता था क्युकी उनकी नियत न तो औरत को निकाह में रखने की होती थी न ही छोड़ने की होती थी । ये जाहिलियत की दौर की बात है ।
इस्लाम ने इस प्रथा को ख़तम करते हुए आदेश दिया के आदमी औरत को तलाक़ सिर्फ दो बार दे सकता है। तीसरी तलाक़ देने पर वो औरत उस आदमी के लिए हराम हो जाती है। आदेश में ये भी है जब तुम दूसरी तलाक़ के बाद औरत को वापस अपने निकाह में लो तो फिर सारी ज़िन्दगी उसे अपने निकाह में रखो या उसका हक़ मैहर देकर अच्छे सलीके के साथ उसे छोड़ दो। उसके बाद वो औरत अपनी ज़िन्दगी जीने के लिए आज़ाद है और वो दूसरा निकाह कर सकती है । अगर किसी वजह से दूसरे निकाह में भी उसका तलाक़ हो जाता है तो इस सूरत में वो अपने पहले पति से दुबारा निकाह कर सकती है लेकिन इसके लिए परिस्थिति और शर्त इतनी आसान नहीं है जितना सुनने में लगता है हदीस में ऐसी कई घटनाओ का ज़िक्र है जहा औरतों को अपने पहले पति से निकाह की इजाज़त नहीं दी गयी है। अगर औरत की नज़र से देखे तो ये उनके उपर अहसान है क्युकी आज के दौर में भी एक तलाक़ शुदा या डिवोर्सी औरत को समाज अलग नज़र से देखता है। लेकिन इस्लाम में उन्हें दूसरी शादी के लिए इजाज़त दी जाती है बल्कि क़ुरान में इसे बेहतर कहा जाता है अगर तलाक़ के बाद वो औरत दूसरी शादी करती है। लेकिन किसी वजह से दूसरी शादी में भी उस औरत का तलाक़ हो जाता है या उसका शोहर मर जाता है और उसके लिए परिस्थिति नहीं है के वो और निकाह करे तो ऐसी सूरत में गुंजाईश निकली जा सकती है के वो अपने पहले पति से दुबारा निकाह कर सकती है लेकिन जिस कारण से तलाक़ हुआ था तो दोनों पति पत्नी को चाहिए के उसे दूर कर ले और दोनों इसके लिए राज़ी हो ।
इसी को हलाला कहा जाता है मतलब वो औरत अपने पहले पति के लिए जायज़ है । अगर धर्म का चश्मा उतार कर देखें तो इस्लाम ने हर मुमकिन प्रयास किया है एक औरत की ज़िन्दगी बेहतर बनाने के लिए। अगर तलाक़ किसी विवाद की वजह से हुई है तो दो बार का मौका काफी है उसे ठीक करने के लिए जैसा इस्लाम ने आदेश दिया है। लेकिन हिंदुस्तान पाकिस्तान बांग्लादेश इन छेत्रो में एक साथ तीन तलाक़ (यानि तलाक़ तलाक़ तलाक़ ) देने की प्रथा ही आम है। ऐसी तलाक़ जोश और गुस्से की हालत में दी जाती है जिससे आदमी को जोश और गुस्सा ठंडा होने पर अफ़सोस ही होता है और वो मौलानाओ के चक्कर काटता। यहाँ ये जानना भी ज़रूरी है के एक साथ तीन तलाक़ देने को इस्लाम पसंद नहीं करता है लेकिन तलाक़ हो जाती है ।
एक साथ तीन तलाक़ के बाद जब आदमी मौलाना के चक्कर काटता है तो मौलाना हलाला की गुंजाईश निकालते है। यहाँ मौलानाओ की निंदा करके इस ओहदे का अपना नहीं किया जा सकता क्युकी मौलवी या मुफ़्ती बनने में सालो की कड़ी मेहनत लगती है उसके बाद ये मर्तबा हासिल होता है हम इस ओहदे की इज़्ज़त और अहतराम दोनों करते है ।लेकिन कुछ मौलाना ऐसी गुंजाईश निकालते है जिसे मुख्य धारा की मीडिया में बहुत गलत ढंग से पेश किया जाता है और लगता है के इस्लाम में औरत एक खिलवाड़ है बल्कि इस्लाम ने जो खिलवाड़ उसके ऊपर होता था उसे ख़तम किया है।
अंत में ये जानना बहुत ज़रूरी है के इस्लाम इसके बारे में क्या कहता है तो मसनद अहमद और निसाई में आता है जो शख़्स इस नियत से दूसरी शादी करे के वो औरत अपने पहले पति के लिए हलाल हो जाये तो दोनों पर (जो शादी कर रहा है उसपर और उसका पहला पति ) अल्लाह की पट्ठकार है बल्कि दोनों को मलऊन कहा गया है। इब्न ऐ माजा में है " में तुम्हे ये बताऊ के उधार लिया हुआ सांड कौन सा है लोगो ने कहा हा तो फ़रमाया जो हलाला करे यानि तलाक़ वाली औरत से इसलिए निकाह करे के वो अपने पहले शोहर के लिए हलाल हो जाये तो उसपर अल्लाह की लानत है। एक रिवायत में है के पैगम्बर ऐ इस्लाम ने ऐसे निकाह को निकाह ही नहीं माना जिसमे मकसद कुछ और हो और ज़ाहिर कुछ और हो, जिसमे अल्लाह की किताब के साथ मज़ाक और हसीं हो। बल्कि निकाह वही है जिसमे रगबत यानि ताल्लुक़ कायम हो। कुछ सहाबा से तो ये रिवायत भी मिलती है के ताल्लुक़ के साथ साथ अच्छी तरह से वक़्त भी बिताया हो और वो निकाह हकीकत में निकाह था उसमे फरेब और धोका नहीं हो । इस बात को मीडिया में इस तरह से पेश किया गया के हलाला में औरतो से एक रात का संबध बनाया जाता है फिर उसे अपने पहले पति के पास भेज दिया जाता है। बल्कि मुसतदरक हाकिम में है एक शख्स ने हज़रात अब्दुल्लाह बिन उमर से सवाल किया एक आदमी ने अपनी बीवी को तीन तलाक़ दी और उस आदमी के भाई ने अपनी मर्ज़ी से बिना भाई को बताये उस औरत से इस लिए निकाह कर लिया के वो औरत मेरे भाई के लिए दोबारा हलाल हो जाये तो क्या ऐसा निकाह जायज़ होगा उन्होंने जवाब दिया हरगिज़ नहीं हम तो ऐसे निकाह को पैगम्बर इस्लाम (हज़रात मोहम्मद PBUH ) के ज़माने में ज़िना में शुमार करते थे। ज़िना यानि वो संबध बनाना जो हराम हो।
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