दर्द के फूल भी खिलते है बिखर जाते है
ज़ख्म कैसे भी हो कुछ रोज़ में भर जाते है
उस दरीचे में भी अब कोई नहीं और हम भी
सर झुकाएं हुए चुप चाप गुज़र जातें है
रास्ता रोके खड़ी है यही उलझन कबसे
कोई पूछे तो कहे क्या की किधर जातें है
नरम आवाज़, भली बातें, मोहज़्ज़ब लहजे
पहली बारिश में ही ये रंग उतर जाते है।
ज़ख्म कैसे भी हो कुछ रोज़ में भर जाते है
उस दरीचे में भी अब कोई नहीं और हम भी
सर झुकाएं हुए चुप चाप गुज़र जातें है
रास्ता रोके खड़ी है यही उलझन कबसे
कोई पूछे तो कहे क्या की किधर जातें है
नरम आवाज़, भली बातें, मोहज़्ज़ब लहजे
पहली बारिश में ही ये रंग उतर जाते है।
(जावेद अख़्तर)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें