गोर गोर चाँद से मुँह
पर, काली काली आँखें है
देख कर जिनको नींद उड़
जाये, वो मतवाली आँखें है
मुँह से पल्ला क्या
सरकना, इस बदिल में बिजली है
सूझती है ऐसी ही नहीं, जो फूटने वाली आँखें है
चाह ने अँधा कर रखा
है, और नहीं तो देखने में
आंखें आंखें सब है
बराबर, कौन निराली आँखें है
बेजिस के अँधेरे है
सब कुछ, ऐसी बात है उसमे क्या
जी का है ये बावलापन
या भोली भाली आँखें है
आरज़ू अब भी खोटे खरे
को, कर के अलग ही रख देंगे
उनकी परख का क्या
कहना है, जो टिकसाली आँखें है
(आरज़ू लखनवी)
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