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मंगलवार, 7 जनवरी 2020

निसार में तेरी गलियों के ए वतन की जहाँ | फैज़ अहमद फैज़




निसार में तेरी गलियों के ए वतन की जहाँ
चली है रस्म की कोई न सर उठा के चले
जो जोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म ो जां बचा के चले
है अहल ए दिल के लिए अब ये नज़्म ए बस्त ो कुशाद
की संग ो खिश्त मुक़य्यद है और सग आज़ाद
बहुत है ज़ुल्म के दस्त ए बहाना जु के लिए
जो चन्द अहल ए जूनून तेरे नाम लेवा है
बने है अहल ए हवस मुद्दई भी , मुंसिफ भी
किसे वकील करें,किस से मुंसिफी चाहें
मगर गुज़रने वालों के दिन भी गुज़रते है
तेरे फिराक़ में यु सुबह ो शाम करते है
बुझा जो रौज़ान ए ज़िंदा तो दिल ये समझा है
की तेरी मांग सितारों से भर गयी होगी
चमक उठे है सलासिल तो हमने जाना है
की अब सहर तेरे रुख पर बिखर गयी होगी
गरज़ तसव्वुर ए शाम ो सहर में जीते है
गिरफ्त ए साया ए दिवार ो दर में जीते है
युही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नयी है, न अपनी रीत नयी
युही हमेशा खिलाएं है हमने आग में फूल
न उनकी हार नयी है न अपनी जीत नयी
इसी सबब से फलक का गिला नहीं करते
तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते
गर आज तुझसे जुदा है तो कल बाहम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
गर आज औज पे है ताला ए रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की खुदाई तो कोई बात नहीं
जो तुझसे अहद ए वफ़ा उस्तवार रखते है
इलाज ए गर्दिश ए लेल ो निहार रखते है .


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