कब से मना रहा हु वो
ज़ालिम मानता नहीं
क्या तुम मुझे चाहोगी
मेरे मर जाने के बाद
कब से मना रहा हु
……………
चल चल के हवायें भी
रुक गयी
आ आ के बहारे भी गुज़र
गयी
कलियों की रंगतें भी
उतर गयी
पर तेरी ना से सनम
हां न हुई
हाँ भी कर दे ज़ालिम क्यों
मानता नहीं
कब से मना रहा हु
……………
न जाने किस बात से
तुम रूठे हो
कोई वजह भी तुम बताते
नहीं
मन्नते, इल्तिजा, खुशामदें बेकार है सारे
और हम है बेसहारें
फैला के बाहें दे दे सहारा
कब से मना रहा हु
……………
किस बात का तुमको
गुरुर है
क्या तुम जन्नत की
कोई हूर हो
अफ़सरा हो या नूर
हो
क्या हो तुम बता दो
हमें ज़रा
कब से मना रहा हु
……………
कब से मना रहा हु वो
ज़ालिम मानता नहीं
क्या तुम मुझे चाहोगी
मेरे मर जाने के बाद
कब से मना रहा हु
……………
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें