जुल्म और सितम का सितम हम पर हर सु देख रहे है
अहले नज़र है जो ग़लबा ऐ इस्लाम की बू देख रहे है
मुजाहिद वो और होंगे ये हमारे बस की बात नहीं
अहले इमां ही मज़लूमों का गिरता लहू देख रहे है।
ऐसा कौन है जो हक़ के लिए आवाज़ अपनी बुलंद करे
रात घनेरी है मगर हम जलता इक जुगनू देख रहे है।
बज़्म ऐ सितम में कोई ख़ामोशी से सब लिख रहा है
अहले हरम का तर्ज़ ऐ अमल रंग ओ बू देख रहे है।
फिर अता कर इस क़ौम में जज़्बा-ए-अय्यूबी या रब
की मुसलमां है ख़ामोश और सितमग़र बाज़ू देख रहे है।