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मंगलवार, 5 मार्च 2019

मजाज़ लखनवी - नज़र ए अलीगढ -AMU तराना - Complete Version


सर शार निग़ाह ए नरगीस हु, पाबस्ता गेसू ए सुम्बुल हु
ये मेरा चमन है, मेरा चमन, में अपने चमन का बुलबुल हु

हर आन यहाँ सहबा कहन इक साग़र के नौ में ढलती है
कलियों से हुस्न टपकता है, फूलो से जवानी उबलती है
जो ताक़ ए हरम में रोशन है, वो शम्मे यहाँ भी जलती है
इस दश्त के गोशे गोशे से एक जु ए हयात उबलती है

इस्लाम के इस बुतखाने में असनाम भी है और आदम भी
तहज़ीब के इस मैखाने में शमशीर भी है और और सागर भी
या हुस्न की बर्क चमकती है, या नूर की बारिश होती है
हर आह यहाँ एक नगमा है, हर अश्क यहाँ एक मोती है
हर शाम है शम ए मिस्र यहाँ, हर शब् है शब् ए मिराज यहाँ
है सारे जहाँ का सोज़ यहाँ और सारे जहाँ का साज़ यहाँ

ये दश्त जुनू दिवानो का, ये बज़्म वफ़ा परवानो की
ये शहर ए तरब रुमानो का, ये खुल्द ए बरीं अरमानो की
फ़ितरत ने सिखाई है हमको उफ़ताद यहाँ परवाज़ यहाँ
गाये है वफ़ा के गीत यहाँ, छेड़ा है जुनू का साज़ यहाँ

इस फर्श से हमने उड़ उड़ कर अफ़लाक के तार तोड़े है
नाहिद से की है सरगोशी, परवीन से रिश्ते जोड़े है
इस बज़्म में तेगें खीची है, इस बज़्म में सागर तोड़े है
इस बज़्म में आँख बिछाई है, इस बज़्म में दिल तक जोड़े है
इस बज़्म में गिर कर तड़पे है, इस बज़्म में पी कर झूमे है

आ आ कर हज़ारो बार यहाँ, खुद आग भी हमने लगायी है
फिर सारे जहाँ ने देखा है ये आग हमी ने बुझाई है
या हमने कमदरें डाली है, या हमने शब् खू मारे है
या हमने कबायें नोची है, या हमने ताज उतारे है

हर आह है खुद तासीर यहाँ, हर ख्वाब है खुद ताबीर यहाँ
तदबीर के पाये संगीन पर झुक जाती है तक़दीर यहाँ
ज़ररात का बोसा लेने को सौ बार झुका आकाश यहाँ
खुद आँख से हमने देखी है, बातिल की शिकस्त ए फ़ाश यहाँ
इस गुल गदा पारिना में फिर आग भड़कने वाली है
फिर अब्र गरजने वाले है, फिर बर्क कड़कने वाली है
जो अब्र यहाँ से उठेगा, वो सरे जहाँ पर बरसेगा
हर जु ए रवां पर बरसेगा, हर कोह ए गरा पर बरसेगा
हर सर्व औ समन पर बरसेगा, हर दश्त व दमन पर बरसेगा
खुद अपने चमन पर बरसेगा, ग़ैरों के चमन पर बरसेगा
हर शहर ए तरब पर गरजेगा, हर कसर ए तरब पर कड़केगा
ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा.






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