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सोमवार, 24 अप्रैल 2017
गुरुवार, 20 अप्रैल 2017
इंसान और आइना | आइना भी यहाँ अक्स उल्टा दिखाया करता है | Poet Diary
आइना भी यहाँ अक्स उल्टा दिखाया करता है
कौन सच्चा है अब किसे तलाश करे
एक बनावटी सी ज़िन्दगी है जी रहे है लोग
रफ्ता रफ्ता यही है पहचान ऐ बशर
खून में अब रिश्तों की गर्मी नहीं
दोस्त बहुत है मगर रिश्ते नहीं
कुचल रही है मख्लूक़ मख्लूक़ को
उजड़ रही है बस्तियाँ खुदा की
जंगल जल चुके, शहर बयाबां, नदियां सूख चुकी
अब कहा रहे किधर जाये कुछ खबर नहीं
मर के जीने का सलीका नहीं
और जी के मरने का हौसला नहीं
आइना भी यहाँ अक्स उल्टा दिखाया करता है
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